मांग अवरोध (Demand constraint)
विकसित औद्योगिक देशों की समस्त समर्थ मांग मैं कमी हो जाने के कारण मंन्दी की स्थिति तथा चक्रीय बेरोजगारी के उत्पन्न हो जाने की व्याख्या करता है और इसीलिए प्रत्यक्ष रूप से यह भारत जैसे विकासशील देशों में राष्ट्रीय आय के निर्धारण वृद्धि तथा इनमें पाई जाने वाली भीषण बेरोजगारी के कारणो की व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता किंतु केंन्ज के सिद्धांत को विकासशील देशों के लिए पूर्ण रूप से व्यर्थ समझना भी भूल होगी मुख्य समस्या जिस पर अर्थशास्त्रियों ने बल दिया वह यह है कि समस्त समर्थ मांग में कमी के कारण आय तथा रोजगार पर बुरा प्रभाव पड़ता है अब यह प्रायः स्वीकार किया जाता है की विकासशील देशों में भी राष्ट्रीय आय तथा रोजगार में पर्याप्त वृद्धि के लिए पूर्ति पक्ष के अवरोधों के अलावा मांग पक्ष का अवरोध भी कार्यशील होता है विकासशील देशों में निवेश की प्रेरणा मार्केट के आकार में कमी होने के कारण सीमित होती है मार्केट के सीमित जाकर से अभिप्राय समर्थ मांग का न्यून होना है विकासशील देशों में समर्थ मांग का कारण भिन्न है जबकि उससे उत्पन्न समस्त मांग में गिरावट मंन्दी व बेरोजगारी उत्पन्न करती हैं विकासशील देशों में व्यापक गरीबों के कारण लोगों की औद्योगिक पदार्थों के लिए समर्थ मांग अथवा मार्केट का आकार कम होता है जो निवेश को निरूत्साहित करता है गरीबों का अर्थ है लोगों के पास क्रय शक्ति का न्यून होना उनकी समस्त मांग को कम कर देता है समस्त मांग की यह न्यूनता विकासशील देशों में पूंजी निर्माण व निवेश में वृद्धि में एक महत्वपूर्ण अवरोधक है पूंजी उत्पादन अनुपात में वृद्धि का एक कारण औद्योगिक पदार्थ के लिए समस्त मांग का घाट जाना अथवा उसमें अपर्याप्त वृद्धि होना बताया अतः उनके अनुसार भारत में अभी तक समस्त मांग की इस कारण अनदेखी की गई है कि यहां सदा उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग होता है किंतु विकासशील देशों का अनुभाविक प्रमाण इसके विरुद्ध है इन देशों में समर्थ मांग की कमी के कारण पूंजी स्टाक अर्थात उत्पादन क्षमता का अल्प प्रयोग संभव है विकासशील देशों में औद्योगिक पदार्थों के लिए मांग की कमी उत्पन्न हो जाने के कारण कि वह इस प्रकार व्याख्या करते हैं उद्योगों में मजदूरियां मुद्रा रूप में निश्चित होती हैं जबकि कृषि पद्धति विशेष कर खाद्यान्नों की कीमतें परिवर्तनशील होती है औद्योगिक पदार्थ की कीमतें अपेक्षाकृत होती है अर्थात उनमें शीघ्र परिवर्तन नहीं होता अतः जब कृषि पदार्थ की कीमतें विशेष कर खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ती हैं तो उद्योगों में मौद्रिक मजदूरियां स्थिर रहने पर उनका अब पहले से अधिक भाग कृषि पदार्थों पर व्यय होगा परिणाम स्वरूप औद्योगिक पदार्थों पर व्यय अथवा उनके लिए मांग घट जाती है जिससे उनका विकास अवरुद्ध होता है तथा उसमें स्थापित उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं हो पता उघोग का विकास तथा उसमें उत्पादन क्षमता का उपयोग समस्त मांग पर निर्भर करता है इस संबंध में वह कृषि विकास द्वारा उत्पन्न औद्योगिक पदार्थों की मांग पर बल देते हैं उनके अनुसार जब कृषि विकास के दर अधिक होती है तो किसानों व जमीदारों की आयु में बहुत वृद्धि होती है इन आयो का एक भाग औद्योगिक पदार्थों पर व्यय होता है अर्थात उनके लिए मांग सृजित करता है औद्योगिक विकास की दर कृषि उत्पादन में वृद्धि की दर पर निर्भर करती है जब कृषि उत्पादन में वृद्धि नहीं होती अथवा उसमें वृद्धि की दर बहुत कम रहती है तो यह औद्योगिक विकास को अवरुद्ध करेगी इसके अतिरिक्त विकासशील देशों में आय वितरण की असीम असमानताएं पाई जाती हैं जिससे औद्योगिक पदार्थ की मांग बड़ी संकुचित हो जाती है परिणाम स्वरुप सामान्य उपभोक्ता पदार्थ के लिए न्यून समर्थ मांग की समस्या उत्पन्न होती है
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