केन्ज का गुणक विकासशील देशों में कार्यशील
20 वीं शताब्दी के छठे दशक 1950 में प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री जिनमें डॉक्टर वी ० के ० आर ० राव ने यह मत प्रकट किया कि जैसे विकासशील देशों में केंन्ज द्वारा प्रस्तुत निवेश गुणक की धारणा लागू नहीं होती अर्थात कार्यशील नहीं होती उनके मतानुसार इन देशों में निवेश में वृद्धि से आय उत्पादन तथा रोजगार की मात्रा कई गुना अधिक नहीं बढ़ती और इस प्रकार अल्प विकसित देशों में केंन्ज का गुणक वास्तविक रूप से कार्यशील नहीं होता उनके अनुसार केंन्ज का निवेश गुणक वास्तविक रूप से कार्यशील नहीं होता उनके अनुसार केंन्ज का निवेश गुणक तो ब्रिटेन यूं एस ए जैसे विकसित देशों में जब मंदी की स्थिति में बड़ी मात्रा मैं अप्रयुक्त उत्पादन क्षमता और बड़ी मात्रा में अनैच्छिक बेरोजगारी पाई जाती है उनके विचार में इन विकसित देशों में मंदी की स्थिति उत्पादन की पूर्ति पूर्णतः लोचपूर्ण होती है जिससे निवेश के बढ़ने पर जब लोगों की आय व उपभोग मांग बढ़ती है तो वस्तु उत्पादन को आसानी से बिना कीमतों में वृद्धि से बढ़ाया जा सकता है परिणाम स्वरुप निवेश में वृद्धि गुणक के कार्यशील होने से वास्तविक आयो उत्पादन तथा रोजगार में कई गुना अधिक वृद्धि करता है दूसरी ओर अल्प विकसित देशों की स्थिति में उनका विचार था कि केंन्ज का गुणक वास्तविक आय व उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि की दृष्टि से नहीं बल्कि केवल मुद्रा रूप में कार्यशील होता है उन्होंने इसके अनेक कारण बताए हैं प्रथम उनके विचार में अल्प विकसित देशों में उपभोक्ता वस्तुओं के उद्योगों में विशेष कर कृषि में अतिरिक्त उत्पादन क्षमता नहीं पाई जाती जिसके फल स्वरुप जब निवेश गुणक द्वारा लोगों की आय बढ़ाती हैं तो उससे वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि नहीं होती बल्कि कीमत है बढ़ जाती है अल्प विकसित देशों में कच्चे माल तथा वित्तीय पूंजी की कमी पाई जाती है जो मांग बढ़ने पर वस्तुओं के उत्पादन बढ़ाने में बाधा उत्पन्न करती है जो गुणक को कार्यशील होने से रोकती है तीसरी उनके विचार में विकासशील देशों में गुणक के लागू न होने का कारण उन में पाई जाने वाली बेरोजगारी का स्वरूप है विकसित देशों में बेरोजगारी खुली तथा अनैच्छिक होती है जिससे जब निवेश गुणांक के प्रभाव से समस्त मांग में वृद्धि होती है तो बेरोजगार व्यक्तियों को सुगमता से कार्यों में लगाया जा सकता है जिस रोजगार तथा उत्पादन में वृद्धि होती है किंतु अल्प विकसित देशों में यह स्थिति नहीं है इनमें बेरोजगारी प्रच्छन्न प्रकार की होती है विशेष कर कृषि में कार्यरत व्यक्तियों की प्रच्छन्न रूप से बेरोजगार व्यक्तियों का कृषि से निकाल कर उद्योगों में कार्य पर लगाना आसान नहीं होता इस पुरातन विचारधारा के अनुसार अल्प विकसित देशों के लोगों की खाद्यान्नों के लिए मांग बहुत अधिक होती है जब वह उद्योगों में रोजगार पाते हैं तो उनके द्वारा अर्जित आयो का अधिकांश खाद्यान्नों पर व्यय होता है दूसरी ओर अल्प विकसित देशों में कृषि उत्पादन में अधिक वृद्धि संभव नहीं होती
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