रोजगार का क्लासिकल सिद्धांत classical theory of employment

क्लासिकी  विचारधारा का यह मानना कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बिना पूर्ण  रोजगार की प्राप्ति नहीं हो सकती है मजदूरी कीमत लोच शीलता दी हुई होने पर आर्थिक प्रणाली में स्वयं शक्तियां शक्तियां पाई जाती हैं तो पूर्ण रोजगार कायम रखने की प्रवृत्ति रहती हैं उसी स्तर पर उत्पादन भी होता है अतुल रोजगार की स्थिति एक समान नहीं रहती है इस स्तर से विचलन की स्थिति असमानी रह जाती हैं जो अपने आप पूर्ण रोजगार की और अग्रसर होती चली जाती है


क्लासिकी सिद्धांत की मान्यताएं--1 अर्थव्यवस्था का कुल उत्पादन उपभोग और निवेश खर्चों में विभाजित है
2-- श्रम समरूप होता है
3- श्रम और वस्तु बाजारों में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है
4- बिना विदेशी व्यापार के एक बन्द   अबन्ध नीति वाली पूजी वादी अर्थव्यवस्था पाई जाती है
5-- पूजी स्टाक और प्रौद्योगिकी ज्ञान दिए हुए हैं
6-- मजदूरी और कीमतें लोचशील है
7-- बिना स्फीति के पूर्ण रोजगार पाया जाता है
8-- मुद्रा मजदूरी और वास्तविक मजदूरी का सीधा और समानुपातिक संबंध है

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री यह समझते थे कि यदि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कीमत प्रणाली को स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाए तो देश में पूर्ण रोजगार होने की प्रवृत्ति होती है प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री समझते थे कि पूर्ण रोजगार के स्तर से जो उतार चढ़ाव होते हैं वे कीमत प्रणाली के कार्य करने के फल स्वरूप स्वयं दूर हो जाते हैं प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के इस रोजगार सिद्धांत को आधुनिक अर्थशास्त्री ठीक नहीं मानते हैं


 प्रतिष्ठित रोजगार सिद्धांत की धारणाएं-- रोजगार का प्रतिष्ठित सिद्धांत दो आधारभूत धारणाओं पर आधारित था प्रथम धारणा यह है कि पूर्ण रोजगार के स्तर पर उत्पादन को क्रय करने के लिए पर्याप्त खर्च होना अर्थात इस सिद्धांत में पूर्ण रोजगार के स्तर पर उत्पादित वस्तुओं को खरीदने के लिए  पर्याप्त व्यय के ना होने की संभावना नहीं मानी गई है दूसरा सिद्धांत के अनुसार कुल व्यय में कमी हो भी जाती है तो भी कीमतों और मजदूरी मैं इस प्रकार परिवर्तन हो जाता है जिससे कुल व्यय में कमी होने पर भी वास्तविक उत्पादन रोजगार तथा वास्तविक आयु में कमी नहीं होगी दोस्तों अगर आपको पसंद आए तो तो कमेंट जरूर कीजिएगा

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