सीमांत उत्पादकता सिद्धांत

 वितरण के सीमांत उत्पादकता सिद्धांत को सामान्यतया साधनों के मूल्य निर्धारण का एक सामान्य सिद्धांत माना जाता है इस सिद्धांत की शुरुआत 19वीं शताब्दी के आर्थिक विचारकों के लेखों  मैं मिलती है सबसे पहले प्राकृतिक मजदूरी के निर्धारण में सीमांत उत्पाद की चर्चा वान थनेन ने अपनी पुस्तक में की सीमांत उत्पादकता सिद्धांत का व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध विश्लेषणात्मक विवेचन क्लार्क ने किया इसीलिए इस सिद्धांत के प्रतिपादक का  19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में अनेक अर्थशास्त्रियों ने इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया वितरण का सीमांत उत्पादकता सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि पूर्ण प्रतियोगिता तथा पूर्ण रोजगार की दशाओं में उत्पादन के विभिन्न साधनों का मूल्य किस प्रकार निर्धारित होता है वितरण के सीमांत उत्पादकता सिद्धांत के अनुसार उत्पादन के विभिन्न साधनों का पारितोषिक उनकी सीमांत उत्पादकता के आधार पर निर्धारित होती है जिस प्रकार से किसी वस्तु का मूल्य उसकी सीमांत उपयोगिता के बराबर होता है उसी प्रकार प्रत्येक साधन का मूल्य पारिश्रमिक नियोक्ता के लिए उस साधन की सीमांत उत्पादकता के बराबर होता है इस वितरण के सिद्धांत में सीमांत उत्पादकता सिद्धांत को एक केंद्र स्थान प्राप्त है उत्पादन का प्रत्येक साधन जहां तक की साहसी भी सीमांत उत्पादकता के बराबर पारितोषिक प्राप्त करेगा कुल उत्पादन उस उत्पादन के लिए विभिन्न साधनों के सीमांत उत्पादन के बराबर होगा इस प्रकार इस सिद्धांत के अनुसार यहां कहा जा सकता है कि साधनों का पारितोषिक उनकी सीमांत उत्पादकता के बराबर दिया जाए तो इसी बिंदु पर फर्म का लाभ अधिकतम होगा इस प्रकार नियोक्ता भी जब किसी उत्पादन के साधनों को उत्पादन में लगता है तो वह अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए प्रयास करता है इसका लाभ वहां अधिकतम होगा जहां उस उत्पादन के साधनों की अंतिम इकाई से उत्पादित वस्तु से मिलने वाली आय उस साधन की सीमांत उत्पादकता से प्राप्त आय उसकी सीमांत लागत के बराबर होगी उत्पादन के किसी भी साधन का पारिश्रमिक उस साधन की औसत उत्पादकता से निर्धारित होता है पर चुकी उत्पादन के साधनों को पारिश्रमिक उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं जैसे कपड़ा कोयला कलम आदि के रूप में नहीं दिया जाता है बल्कि द्रव्य के रूप में दिया जाता है इसीलिए पारिश्रमिक का निर्धारण कुल सीमांत उत्पादन द्वारा ना होकर सीमांत आय उत्पादन द्वारा होता है उत्पादक किसी भी साधन की और इकाई लगाने से पहले यह विचार करता है की साधन की अतिरिक्त इकाई पर उसे कितनी लागत या पारिश्रमिक देनी पड़ेगी तथा साथ ही साथ उस अतिरिक्त इकाई द्वारा उत्पादित वस्तु के विक्रय से कितनी आय प्राप्त होगी वह तब तक साधन के सीमांत आय उत्पादन तथा सीमांत लागत बराबर नहीं हो जाते दोनों के बराबर हो जाने पर उत्पादक का लाभ अधिकतम होगा यदि किसी साधन का पारितोषिक उसकी सीमांत उत्पादकता से अधिक हो तो उत्पादक को हानि होगी और वह साधनों की कम इकाई प्रयोग करेगा और यदि साधनों को उनकी सीमांत उत्पादकता से कम पारिश्रमिक दिया जाए तो पूर्ण गतिशील होने के कारण उत्पादन के साधन इस कार्य को छोड़कर उस कार्य में लगा अधिक पसंद करेंगे जिसमें पारितोषिक अपेक्षाकृत अधिक हो यही उत्पादक के लिए संतुलन बिंदु होगा अल्पकाल में हो सकता है कि पारिश्रमिक उत्पादन की सीमांत उत्पादकता से कम हो अथवा अधिक पर दीर्घकाल में निश्चित रूप से यह दोनों बराबर होंगे 

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