मजदूरी का लौह सिद्धांतwage theory

मजदूरी के लौह सिद्धांत का प्रतिपादन  18वीं तथा 19वीं शताब्दी में टरगाॅट द्वारा किया गया जो एक प्रकृति वादी अर्थशास्त्र के रूप में जाने जाते थे मजदूरी निर्धारण का सिद्धांत उस समय किया गया जब यूरोप की जनसंख्या बहुत तीव्रता से वृद्धि कर रही थी तथा उत्पादन उसकी तुलना में अत्यंत कम था इस सिद्धांत के अंतर्गत मजदूरी निर्धारण के सिद्धांत को एक प्राकृतिक निर्धारण के सिद्धांत की उपमा दी गई तथा इसके अनुसार मजदूरी जीवन निर्वाह के बराबर ही रहती है
इस प्रकार इस सिद्धांत के अनुसार एक और जनसंख्या की वृद्धि के फल स्वरूप श्रमिकों की पूर्ति में वृद्धि के कारण मूल्य में वृद्धि के फलस्वरूप वास्तविक मजदूरी में  ह्रास होगा एडम स्मिथ तथा रिकार्डो ने कहां है यदि मजदूरी जीवन निर्वाह से ऊपर होगी तो श्रमिकों में संतान उत्पत्ति की प्रवृत्ति भी तीव्र होगी जिसके कारण श्रम की पूर्ति मैं वृद्धि होगी और इस प्रकार यदि जिससे श्रम की पूर्ति घटकर पुनः इसी न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाएगी
रिकार्डो ने यह कहा है कि श्रम की प्राकृतिक कीमत वह होती है जो श्रमिकों को एक दूसरे के साथ जीवन निर्वाह करने अपनी जाति को बिना वृद्धि अथवा किसी कमी के स्थिर बनाए रखने के लिए आवश्यक है अर्थात प्राकृतिक दर वह है जो जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है दूसरी ओर मजदूरी की बाजार दर वह दर है जो बाजार में प्रचलित रहती है तथा जिस पर श्रमिक कार्य करते हैं श्रमिकों की संख्या में वृद्धि अथवा कमी के कारण मजदूरी कि बाजार दर तथा प्राकृतिक दर मैं अंतर हो सकता है पर दिल काल में दोनों बराबर होते हैं

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